Tuesday, March 12, 2013

इश्क़ में भी अपनी अक्ल और बिज़नेस ख़राब नहीं करता बड़ा ब्लॉगर

उसने कह दिया है कि ईनाम के लालच में काम करना अच्छी बात नहीं है।
किसने कह दिया है भाई साहब ?
अरे भाई, हैं एक बड़े ब्लॉगर !
कौन से बड़े ब्लॉगर हैं वो ?
वही जो छोटे छोटे ईनाम कई बार ले चुके हैं।
अच्छा, अच्छा वह हैं। वे तो ईनाम तब भी छोड़कर न आए जबकि उनके दोस्त, साथी और बिज़नेस पार्टनर ने ख़ुद को अपमानित महसूस किया और उसने अपना ईनाम अपनी कुर्सी पर ही छोड़ दिया था। उस कटिन समय में भी वह अपना ईनाम बड़ी मज़बूती से पकड़कर गाड़ी में उनकी बग़ल में ही बैठे रहे थे।
दिल्ली बॉम्बे में ऐसा ही होता है। वे दूसरे की ज़िल्लत को उसी तक रखते हैं। यह सोच देहाती है कि दोस्त ज़लील हो जाए तो हम भी ईनाम ठकुरा दें। ऐसे तो ईनाम कभी भी न मिलेगा। अगले प्रोग्राम में भी कुछ ब्लॉगर्स ने अपने अपमानित होने की बात ब्लॉग जगत को बताई थी। सामूहिक आयोजन हो और कोई अपमानित न हो, ऐसा भला कहीं होता है क्या ?

यह तो बड़ी अक्लमंदी की बात है भाई।
हां, और नहीं तो क्या !, इन्हें अल्लाह से भी ईनाम का लालच नहीं है। बस इन्हें तो अल्लाह से इश्क़ हो गया है।
अच्छा, यह नई ख़बर है। जिसे दोस्त से मुहब्बत न हुई उसे अल्लाह से इश्क़ हो गया है।
बड़े शहरों में ऐसा ही होता है। पुराने उर्दू फ़ारसी लिट्रेचर में मुहब्बत और इश्क़ में थोड़ा सा फ़र्क़ माना जाता है। मुहब्बत में अक्ल क़ायम रहती है और इश्क़ में जुनून होता है, दीवानगी होती है। उसमें अक्ल बाक़ी नहीं रहती। जिसमें अक्ल बाक़ी हो, समझो उसे इश्क़ नहीं हुआ और अगर वह बदनामी से डरता हो तो समझ लो उसे मुहब्बत भी नहीं हुई क्योंकि बदनामी इश्क़ में तो होती ही है, मुहब्बत खुल जाय तो उसमें भी हो जाती है।
बदनामी ने इसके दामन को कभी छुआ तक नहीं। अल्लाह का चर्चा करने के लिए जो दो एक ब्लॉगर बदनाम हैं। यह उनके पास तक नहीं फटकता।
इसीलिए हिंदी हिंदू ब्लॉगर्स से कमाने वाला यह अकेला ‘अल्लाह का आशिक़‘ है।
बड़े ब्लॉगर्स का एक रंग यह भी है। ये सदियों से चले आ रहे शब्दों के अर्थ बदल कर रख देते हैं।

11 comments:

alka mishra said...

इसीलिए हम ऐसे आयोजनों से और इनके आयोजकों से विरत रहते हैं.

Asha Lata Saxena said...

यह बात बहुत महत्त्व की है की जिसे जितने बड़े पुरूस्कार मिले वह उतना बड़ा ब्लोगर बना गया |पर उसके पीछे छिपे राज शायद कम लोग ही जानते हैं |जरूरी है जानना की लिखने के पीछे उद्देश्य क्या है
यह तो सब जानते हैं की किसके लेखन में कितना दम है कोईअपने मन की प्रसन्नता के लिए लिखता है तो कोइ दूसरों पर प्रहार करने के लिए |यदि मन का सुख चाहिए तो ऐसा लिखा जाए जो किसी को दुखी न करे | स्वस्थ प्रतियोगिता हो तब तो ठीक है वरना इनसे दूर ही रहा जाए तो अच्छा है |अच्छी लेख |
आशा

Ayaz ahmad said...

गहरी हक़ीक़त की अक्कासी करता हुआ एक मज़ेदार तन्ज़।
शुक्रिया !
इसे मैं अपने ब्लाग पर भी दे रहा हूं।

रविकर said...

बहुत बढ़िया है आदरणीय -

नामी ब्लॉगर हो गया, पाया बड़े इनाम |
इश्क-मुहब्बत भूल के, करूँ काम ही काम |
करूँ काम ही काम, किताबें दस छपवाईं |
करे रुपैया नाम, कदाचित नहीं बुराई |
पर रविकर कंजूस, भरे रुपिया ना हामी |
पुस्त-प्रकाशन शून्य, हुआ ना अभी इनामी ||

DR. ANWER JAMAL said...

@ आदरणीय रविकर जी ! बड़ा ब्लॉगर बिना पैसे दिए भी ईनाम झटक लेता है बल्कि ईनामदारों से रक़म भी झटक लेता है। यहां बड़े बड़े छल प्रपंच चल रहे हैं। आप हिंदी ब्लॉगिंग के गोल्डन काल के बाद आए हैं। आप ज़रा सा चूक गए हैं वर्ना आपको बड़े अदभुत नज़ारे देखने को मिले होते।
ख़ैर, आपको भी भाई लोग बिना ईनाम दिए छोड़ने वाले नहीं हैं।
:)

पेशगी शुभकामनाएं !

प्रवीण said...

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संदर्भ समझ नहीं आये... एकाध लिंक दिये होते तो शायद समझ भी आता और आनंद भी... :)


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अज़ीज़ जौनपुरी said...

विरत रहना ही ठीक है

अज़ीज़ जौनपुरी said...

सुन्दर अभिव्यक्ति," लिख किताब पंडित हुआ,ज्ञान अल्प सुन भाय ,बिन किताब पंडित भया, हुआ सूर्य सुन भाय

DR. ANWER JAMAL said...

@ अज़ीज़ जौनपुरी साहब ! हमारे ब्लॉग पर पहली बार टिप्पणी करने के लिए शुक्रिया !

DR. ANWER JAMAL said...

@ प्रिय प्रवीण जी ! हिंदी ब्लॉगर्स की याददाश्त पर भरोसा न होता तो लिंक भी दे दिया होता। वैसे भी यह पोस्ट आपकी ‘क़लम तोड़‘ कविता के बाद माहौल को हल्का फुल्का करने के लिए लिखी गई है। हारून साहब के ये शेर देखिए और बताईये कि आपकी और हमारी पोस्ट से इन अशआर का कुछ संबंध है क्या ?

यूँ इस दिले नादाँ से रिश्तों का भरम टूटा
हो झूठी क़सम टूटी या झूठा सनम टूटा

बाक़ी ही बचा क्या था लिखने के लिए उसको
ख़त फाड़ के भेजा है, अलफ़ाज़ का ग़म टूटा

उस शोख़ के आगे थे सब रंगे धनक फीके
वो शाख़े बदन लचकी तो मेरा क़लम टूटा

Kunwar Kusumesh said...

बात मज़ेदार है.